(2) किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने से पहले उसे नोटिस जारी करने को अनिवार्य बनाने संबंधी विधेयक दंड प्रक्रिया संहिता 'संशोधन' विधेयक 2010 उपरोक्त संशोधन कब से लागू होगा और क्या इस कानून पर महामहिम राष्ट्रपति द्वारा अधिसूचना जारी होने के बाद ही लागू होगा? वैसे इस कानून के पूरी ईमानदारी से पालन करने पर वेकसुर व्यक्ति पुलिस द्वारा शोषित होने से बच सकेंगा.
(3)दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस एस.एन.ढींगरा ने एक पारिवारिक अदालत द्वारा दिए गए निर्णय को दरकिनार करते हुए यह व्यवस्था दी है कि किसी व्यक्ति की निजी आय उसकी परित्यक्ता पत्नी के गुजारे-भत्ते का निर्णय करने के लिए आधार होना चाहिए न कि उसकी पारिवारिक संपत्ति। पारिवारिक अदालत ने एक व्यक्ति को अपनी परित्यक्ता पत्नी को गुजारे-भत्ते के लिए 45,000 रुपए प्रति माह देने का आदेश दिया था, जबकि उस व्यक्ति की निजी आय 41,000 रुपए प्रति माह है। जस्टिस ढींगरा ने सत्र न्यायालय के फैसले को अनुचित करार देते हुए कहा कि किसी व्यक्ति के आत्मनिर्भर और बारोजगार होने के बाद उस व्यक्ति की निजी आय ही उस पर निर्भर रहने वाली उसकी पत्नी या उसके बच्चों के लिए गुजारे भत्ते की राशि तय करने के लिए आधार होना चाहिए और उपरोक्त व्यक्ति की मौजूदा संपत्ति उसके पिता, माता और भाभी के नाम है, जिसे उसकी पत्नी की संपत्ति के तौर पर विचारित नहीं किया जा सकता है। कोर्ट ने कहा कि उसके भाई या अभिभावकों के नाम की संपत्ति को गुजारा-भत्ता तय करने का आधार नहीं बनाया जा सकता है। किसी व्यक्ति के स्तर का आंकलन उसके भाई या पिता के स्तर के आधार पर नहीं हो सकता है। जस्टिस ढींगरा ने उसके गुजारे-भत्ते की राशि को 45,000 रुपए से घटाकर 20,000 रुपए कर दिया है। यहाँ गौरतलब है कि- सत्र न्यायालय ने पत्नी द्वारा घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत दाखिल सुरक्षा और गुजारे-भत्ते की अर्जी को स्वीकार कर लिया था और मैट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट द्वारा तय रखरखाव की राशि को बढ़ाकर 10,000 रुपए से 30,000 रुपए कर दिया था और घर के किराए की राशि को 5 हजार रुपए से बढ़ाकर 15,000 रुपए कर दिया था। हाईकोर्ट एक व्यक्ति की याचिका पर सुनवाई कर रही है, जिसने सत्र न्यायालय के फैसले को इस आधार पर चुनौती दी थी कि उसकी परित्यक्ता पत्नी के लिए गुजारे-भत्ते की राशि तय करने में उसके परिवार के स्तर और संपत्ति को आधार नहीं बनाया जा सकता है।
वाह! सत्र न्यायालय ने कमाल कर दिया रुमाल को खींचकर धोती बना दिया. निजी आय से ज्यादा गुजारा भत्ता देने का निर्णय दे दिया. इससे कहते हैं आँखें होते हुए भी आँखों का न होना या पक्षपात करना या बंद आँखों से निर्णय देना.
(4) प्रदेश में एडीजे की सीधी भर्ती परीक्षा में कथित धांधली के विरोध में आंदोलन कर रहे वकीलों के समर्थन में बार काउंसिल ऑफ राजस्थान ने अखिल भारतीय राजस्थानी भाषा मान्यता संघर्ष समिति का समर्थन करके बहुत अच्छा किया है.
(5) पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट के जस्टिस दया चौधरी ने बहुत अच्छा किया जो दोनों की सुरक्षा के लिए हाथ बढ़ाते हुए मोगा के एसएसपी को कानून के मुताबिक जरूरी कार्रवाई करने के निर्देश दिए हैं। काश असली में सही सुरक्षा मिली तो दो प्यार करने वालों का एक सुखमय जीवन व्यतीत होगा. वरना मात्र इज्जत की झूठी शान के लिए के कहीं एक और बलि न चढ़ जाये. जिस दिन हमारे देश के पुलिस थानों सुनवाई होने लग जाये और सही कार्यवाही होने लग जाएँगी. तब अपने-आप न्यायालाओं में केसों का इतना दबाब नहीं रहेगा.
(6) कनॉट प्लेस इलाके में जुलाई के आखिरी सप्ताह में एक महिला ने शंकर रोड पर एक बच्ची को जन्म दिया और इस दौरान वह चल बसी। तब मीडिया में आई रिपोर्ट पर हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस ने संज्ञान लेकर कार्य तो बहुत अच्छा किया. मगर माननीय चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा जी काफी सारे ऐसे मामले भी होते हैं. जिनकी पहुँच मीडिया या हाईकोर्ट तक नहीं होती है. वो बेचारे यूँ ही कीड़े-मकोड़ों की तरह मर जाते हैं या आत्महत्या कर लेते हैं.अगर किसी बेचारे को कभी-कभार सरकारी वकील मिल भी जाता है तब सरकारी वकील दबाब में आ जाता है या बिक जाता है. अगर यह सम्भव नहीं होता है तब अपने कार्य की गति इतनी धीमी कर देता है कि-एक गरीब को न्याय मिलने में कई सालों लग जाते हैं और वो न्याय न होकर एक प्रकार से अन्याय ही होता है.
(7) आज के समय की मांग है कि- कंपनी विधेयक में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों को जरुर शामिल करना चाहिए. न जाने हमारा देश अंग्रेजों के ज़माने के सड़े-गले कानूनों से कब मुक्त होगा.वो दिन कब आएगा जब हमारे देश की अदालतें आधुनिक ज़माने के कानूनों और सामानों से सुसज्जित होगी.आज अपराध करने का तरीका और अपराधी दोनों बदल चुके हैं. आज कानूनों में बदलाव समय की आवश्कता है.
(8) मैं जय कुमार झा के इस विचार से सहमत हूँ. सर्वोच्च न्यायलय द्वारा जनहित में एकदम सही निर्णय. ऐसे निर्णय लेने की आज जरूरत है. मगर साथ में मुआवजा की रकम कुछ ज्यादा भी कर देनी चाहिए थीं. जब रेलवे पंचाट ने हफीज के परिवार को दो लाख रुपये मुआवजा देने का आदेश दिया था, लेकिन उच्च न्यायालय ने यह कहकर रेलवे को मुआवजे की जवाबदेही से बचा लिया था कि हफीज की मौत उसकी अपनी लापरवाही से ट्रेन से गिरने के कारण हुई। क्या उपरोक्त निर्णय देखकर नहीं लगता है कि-आज केवल सुप्रीम कोर्ट जाकर ही न्याय मिलता है? यहाँ एक बात और कहना चाहता हूँ कि-ऐसे आदेश सिर्फ अखबार और ब्लॉग में सुर्खियाँ बनकर न रहें और भविष्य में इस प्रकार के मामलों को निचली अदालतों में ही न्याय मिलना चाहिए.
(9) फटकार जरुर पड़ी है मगर ऐसी फटकार से इनकी सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है. काश.... हमारे देश के नेताओं को ऐसी फटकारों से कुछ सबक मिल जाये और यह फटकार इनके दिल में जाकर लगे तो यह अपने-आप में सुधार लाकर तब शायद कुछ देशहित के बारें में सोचेंगे. मगर इसके लिए इनका "दिल" का संवेदनशील होना चाहिए.
(10) जब पुलिस रोक लगाने में असमर्थ है तब बहुत अच्छा सुझाव है. मैं अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश धर्मेश शर्मा के विचारों से सहमत हूँ. देश में क्रिकेट और अन्य खेलों में सट्टे को कानूनी रूप से मान्यता देने का सुझाव दिया है। सट्टेबाजी को कानूनी मान्यता देने से सरकार को न सिर्फ धन के स्थानान्तरण का पता लगाने में मदद मिलेगी बल्कि इससे उसको राजस्व भी मिलेगा जिसका उपयोग सार्वजनिक कल्याण में किया जा सकता है।
(11) एक दुर्भाग्यपूर्ण आदेश है. जिसमें पक्षपात व तानाशाही की झलक मिलती हैं. माना कि-पत्नी की जिम्मेदारी उठाना पति का नैतिक कर्तव्य है। लेकिन क्या कभी पति के प्रति पत्नी द्वारा नैतिक जिम्मेदारी न निभाने पर कोर्ट ने कोई सजा दी है? वहां पर सभी मौन हो जाते हैं. गौरतलब है कि-हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक आदेश में कहा था कि बेरोजगार पति को गुजारा भत्ता देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। इस तरह के आदेश को देखकर लगता हैं कि-मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट व सत्र न्यायालय ही एक गरीब आदमी को भी हाईकोर्ट या उच्चतम न्यायालय जाने के लिए लगभग मजबूर कर देता है. अगर किसी बेचारे के पास वकीलों के लिए पैसे न हो तो बेचारा आत्महत्या नहीं करेगा तो क्या करेगा?
(12) भारत के मुख्य न्यायाधीश एसएच कपाड़िया ने देश की निचली अदालतों की काम की दयनीय परिस्थितियों पर नाराजगी जताते हुए कहा है कि जजों को भी गरिमा के साथ काम करने का अधिकार है। उन्होंने संविधान की धारा 21 का हवाला दिया। कपाड़िया ने कहा, "मैं पिछले 20 साल से देख रहा हूं कि ज्यादातर राज्यों के जिला जज बेहद खराब परिस्थितियों में काम कर रहे हैं। कोई इमारत नहीं, कमरा नहीं और काम करने के लिए ठीक से जगह भी नहीं है। खुद मैंने ऐसी अदालतें देखी हैं।" पर्याप्त बुनियादी न्यायिक ढांचे की जरूरत पर बल देते हुए जस्टिस कपाड़िया ने कहा कि कोई भी न्याय व्यवस्था इसके बिना प्रभावी रूप से काम नहीं कर सकती।
माननीय भारत के मुख्य न्यायाधीश एसएच कपाड़िया जी मैं आपके विचारों से सहमत हूँ. मगर आपकी उपरोक्त टिप्पणी आने में 20 साल का समय लगा उसका मुझे बहुत अफ़सोस है. आखिर इतनी देर से यह टिप्पणी क्यों? अब देर हुई तो कोई बात नहीं, लेकिन अब क्या इसमें सुधार का कोई प्रयास किया है या जा रहा है. हमारे देश की सरकारें व नेताओं से तो कोई उम्मीद नहीं है. आप ही कुछ करके दिखा दीजिये.
(13) मैं अख्तर खान "अकेला", दिनेश राय द्विवेदी, अंशुमाला, वन्दना गुप्ता और राकेश शेखावत के विचारों से सहमत हूँ. न्यायाधीश के इस तरह के कार्य से आम लोग तो बहुत खुश हैं.जज जे. वी. वी. सत्यनारायण मूर्ति का कहना है कि वह वादियों को राहत दिलाने के लिए और मामलों के त्वरित निपटारे को लेकर प्रतिबद्ध हैं. न्यायाधीश ने कहा कि वह आपराधिक दंड प्रक्रिया संहिता के अनुरूप काम कर रहे हैं और उन पर कोई भी सवाल नहीं उठा सकता। उन्होंने कहा कि वकीलों के मेहनताने की खातिर वादियों को कष्ट झेलने के लिए विवश नहीं किया जा सकता। गौरतलब है कि लगभग साढे़ तीन महीने के कार्यकाल के भीतर ही न्यायाधीश मूर्ति ने लगभग 500 मामलों का निपटारा किया है. (मेरी राय: हर केस को मात्र एक केस समझकर न निपटाया जाए बल्कि पूरी ईमानदारी के साथ यह देखा जाये कि-किसी के साथ नाइंसाफी न हो और किसी पक्ष पर मामले को निपटाने के लिए दबाब भी नहीं बनाना चाहिए.) बार एसोसिएशन के एक अधिकरी ने आईएएनएस को बताया कि प्रत्येक पेशी के लिए 100 से 200 रूपये मेहनताना कमाने वाले वकीलों के एक समूह ने उक्त न्यायाधीश से मिलकर काम करने की गति धीमी करने का आग्रह किया। (मेरी राय: अगर वकीलों लगता है कि-इससे बेरोजगार हो जायेंगे तब उनका यह सोचना गलत है बल्कि इससे हर दूसरा व्यक्ति कोर्ट में अन्याय के खिलाफ आना चाहेगा. तेजी से केस निपटाए जाने के कारण अगर किसी के साथ नाइंसाफी हुई हो तो उसका केस उच्च न्यायालयों में कम से कम फ़ीस पर क्यों नहीं लड़ते हो और प्रत्येक पेशी के लिए 100 से 200 रूपये मेहनताना वाली बात हजम नहीं हुई. क्या आज तक किसी वकील ने पूरी ईमानदारी 100-200 रूपये की अपने मुक्किवल को रसीद जारी की है या बगैर मांगे भी पूरे केस की फ़ीस रसीद जारी की है या अपने हर केस पर उसकी फ़ीस की रसीद जारी की है)(क्रमश:)
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आदरणीय श्री रमेश कुमार जी,
जवाब देंहटाएंएफआईआर के सम्बन्ध में आपका सुझाव नि:सन्देह प्रशंसनीय है, लेकिन भाई जब तक हम केवल व्यवस्था बदलने की ही बात करते रहेंगे और लोगों के बिग‹डते जाने की परवाह नहीं करेंगे। किसी भी क्षेत्र में कुछ भी नहीं हो सकता।
आपको ज्ञात होगा कि जिस मजिस्ट्रेट के क्षेत्राधिकार के थाने में रिपोर्ट दर्ज की जाती है, उसकी कॉपी २४ घण्टे के अन्दर-अन्दर सम्बन्धित मजिस्ट्रेट के कार्यालय में आ जाती है, जहाँ से कोई भी नाम-मात्र के खर्चे पर बिना किसी वकील के रिपोर्ट की प्रमाणित नकल ली जा सकती है। हाँ यह सही है, कि नकल नहीं देने के लिये मजिस्ट्रेट कार्यालय के बाबू पूरी ताकत लगाते हैं, लेकिन हममें से अधिकतर यहीं पर झुक जाते हैं या हार मान लेते हैं।
मैंने न केवल १८ वर्ष की उम्र में इस व्यवस्था के खिलाफ बाबू को मजिस्ट्रेट के समाने ख‹डा किया, बल्कि मजिस्ट्रेट को इस बात के लिये बाध्य कर दिया कि उन्हें अपने बाबू को सस्पेण्ड करना प‹डा। आप खुली अदालत में जाकर गुहार करें और मजिस्ट्रेटे को बतावें कि उनके कार्यालय में क्या-क्या हो रहा है, देखते हैं कि कैसे आपको नकल नहीं मिलती है।
हो सकता है कि इसके लिये आपको धमकाया जावे कोर्ट की अवमानना का भय भी दिखाया जावे। ये सब बकवास बाते हैं। आपको अन्याय का प्रतिकार करना है तो बोलना होगा। जो लोग चुप बैठे रहते हैं, उन्हें कुछ भी नहीं मिल सकता।
इसलिये देश के १७ राज्यों में सेवारत-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) के ४४०० से भी अधिक आजीवन कार्यकर्ताओं को मैं बार- बार एक ही बात कहता हूँ कि-बोलोगो नहीं तो कोई सुनेगा कैसे? आपको भी यही सुझाव है।
शुभकामनाओं सहित।
शुभाकांक्षी
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा निरंकुश
सुन्दर और सराहनीय विचार ,लेकिन दुःख होता है की ऐसे विचारों को इस देश में कोई सुनने वाला नहीं | जनता की कल्याणकारी योजनायें जनता के असल दुःख को सुने बिना बनाकर लूट ली जाती है और पूरी व्यवस्था सोयी रहती है ,दिल्ली में सिर्फ DTC की बसों की खरीद में अड्बों की हेराफेरी कर ली गयी लेकिन प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति जैसे जिम्मेवार पदों पर बैठा व्यक्ति भी इस हेराफेरी के गुनेह्गारों को पकड़ने की वजाय उसे प्रोत्साहित करने में लगा है ...अब तो प्रधानमंत्री के पद पर बैठा निकम्मा व्यक्ति बेशर्मी की हद को पार कर सर्वोच्च न्यायलय के एक सच्चे जज के फैसले को सराहने की वजाय सर्वोच्च न्यायलय को ही नीतिगत मामलों से दूर रहने को कह रहा है ,ऐसे में कोई सत्य और न्याय के लिए इस देश में क्यों बोलेगा और उसके लिए काम करेगा ये बहुत बड़ा सवाल है ...? अब वक्त आगया है जब लोगों को ऐसे प्रधानमंत्री के खिलाप आवाज को सड़कों पे बुलंद कर कुर्सी छोड़ने के लिए बाध्य करने का काम करना होगा ...
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