भेजा है निमंत्रण दोस्ती का स्वीकार करों या इंकार करों
प्रिय दोस्तों, सदा खुश रहो!
जय
जिनेन्द्र दोस्तों, भेजा है निमंत्रण दोस्ती का स्वीकार करों या इंकार
करों क्या यह तुम्हारे काबिल भी है. मेरा यह खाता कहूँ या प्रोफाइल फेसबुक
की भीड़ में कहीं खो गई थी. असल में हुआ यह मुझे अंग्रेजी का बिल्कुल भी
ज्ञान नहीं है. एक दिन अखबार पढते हुए इन्टरनेट पर किसी फेसबुक सोशल
वेबसाइट का जिक्र किया हुआ. उस समाचार को पढकर पता चला. यहाँ पर लोगों
बिछड़े हुए यार भी मिल जाते हैं और किसी को प्यार मिलता है. कोई प्यार जैसे
पवित्र रिश्ते को इसकी आड़ लेकर तार-तार भी कर देता है. मैंने फेसबुक पर
अपनी प्रोफाइल बनाने का खूबसूरत-सा पंगा ले तो लिया. मगर सात-आठ घंटे खूब
माथा-खपची करके कुछ नहीं कर पाया. क्योंकि हम अनाड़ी और आप खिलाडी. हम इसकी
कुछ भी सेटिंग करते, हो कुछ जाता था. आखिर थक-हारकर हम फेसबुक पर बिछड़े
हुए यारों और रिश्तेदारों को तलाशने की कार्यवाही को "मेरे सपनों की रानी"
कब आएगी? जैसी एक दुल्हन समझकर, एक बुरा ख्याब की तरह भूल गए.
इन्टरनेट की दुनिया से यह अनजान आपका दोस्त, भाई, चाचा, मामा अपनी ही
पत्रकारिता की दुनिया में कागज पर कलम को घिसते-घिसते कब बाहर की दुनिया से
कट गया खबर ही नहीं हुई. अप्रैल 2011में एक हमारा दोस्त फेसबुक पर कुछ
करने में लगा हुआ था. हम इस फेसबुक के पीड़ित ने अपनी पीड़ा को उसके सामने
ऐसा रखा. अगर तुम हमें ई ससुरी, फेसबुकवा के बारे में नहीं बतओंगे तो हमारा
सारा सपना चूर-चूर हो जाएगा. अब हम तो अनाड़ी और वो थें खिलाडी. एक फिर
हमने उनको उनके घर जाकर अपना दुखड़ा रोना शुरू कर दिया. जनाब उनको हम पर रहम
आया और हमारे घर आकर हमारा भी फेसबुक पर खाता खोल दिया.
एक-दो बाते बता दी और चल दिए हमें हमारे कम्प्युटर के साथ तन्हा छोड़कर.
अब हम थें और हमारे तन्हाई का साथी कम्प्युटर था. मगर आँखों में अपने
बिछड़े दोस्तों और रिश्तेदारों को तलाश करने का सपना था. मगर हमें कुछ नहीं
मिला तब इस अंधे के हाथ एक दिन बटेर हाथ लग गई. यानि एक जगह हिंदी लिखा
मिला उसको सलेक्ट करा और पता-पता कहाँ-कहाँ पर क्लिक किया. फिर तो ऐसा हुआ
जैसे किसी के हाथ अलादीन का चिराग हाथ लग जाता है. हम हिंदी को पढ़-पढकर
बहुत से खाली बक्सों में कुछ भरने लगे. कभी-कहीं कभी कहीं किल्क करते रहे.
एक दिन देखा कि
हमारी प्रोफाइल में हमारे द्वारा लिखी सब उलटी-सीधी बातें दिख रही है. फिर
तो मानों मुझे पंख ही लग गए. मगर ख्याब अब भी अधूरा था. बस उसका प्रयोग
अपनी पत्रकारिता में करने लग गए. अपनी आठ-दस दिन से मेरी बड़ी भतीजी ने
मेरे पास आकर थोड़ी देर बैठती और हम अनाड़ी उसकी मदद लेकर फेसबुक की नई से नई
चीजों को सिखने लग गए. अब हमने सोचा जब रिश्तेदार नहीं मिल रहे हैं तब
कुछ अनजान लोगों को ही दोस्त क्यों नहीं बना लिया जाए. लेकिन हमे यह नहीं
पता था कितनों को दोस्त बनाने के लिए आवेदन करना है. एक के बाद एक हमने सौ
से भी ज्यादा लोगों दोस्ती करने का निमत्रण पत्र भेज दिया. एक फेसबुक पर से
सूचना भी आई.मगर ससुरी अंग्रेजी में होने के कारण सिर के ऊपर से निकल
गई.
उस
सूचना ने अगले दिन अपना प्रभाव दिखा दिया. हमारे हाथ और माउस को बौना बना
दिया, क्योकि कुछ दोस्त बन गए थें लेकिन आगे किसी को दोस्ती का निमंत्रण
नहीं जा रहा था. एक दो दिन पहले अपनी भतीजी के खाते से कई पुराने दोस्तों
का नाम डालकर दिखवाया. हम क्या देखते यह सब रिश्तेदार और दोस्त सब फेसबुक
पर बैठे है. कोई शादी की फोटो लगा रखा तो कोई किसी कार्टून का फोटो के
पीछे छुपा बैठा है. मगर अफ़सोस हुआ जब तलाश किया तब नहीं मिले. अब मिले तो
हम इनको दोस्ती का निमंत्रण नहीं भेज सकते है. इसलिए उस प्रोफाइल को केवल
पत्रकारिता के लिए प्रयोग करने का सोचकर इस प्रोफाइल के बारे में सोच-विचार
करने लग गए. तब आज एक पुरानी डायरी में इस प्रोफाइल का ईमेल आई.डी और
पासवर्ड लिखा मिला. तब जुड गए क्योंकि कुछ समय में हम थोड़े से खिलाडी जो
बन गए थें. अब इस में थोड़ा-बहुत लिख दिया है. बाकी धीरे-धीरे लिखता
रहूँगा.
अच्छा दोस्तों/रिश्तेदारों
मैंने अपनी दोस्ती का निमंत्रण पत्र भेजने की जिम्मेदारी निभा दी है. अब
आपकी मर्जी मेरी दोस्ती का प्रस्ताव स्वीकार करों या इंकार करो. मेरी
"सपनों की रानी " को दुल्हन बनों या इसको भगा दो. यह सब आपके हाथ
में....है. मेरा ख्याब तो पूरा हो गया जो आपको तलाशने का था. भेजा है
निमंत्रण दोस्ती का स्वीकार करों या इंकार करों- क्या यह (रमेश) तुम्हारे
काबिल भी है मगर यह जरुर बताओ. अच्छा तो हम चलते हैं, फिर मिलेंगे जब तुम
याद करोंगे.......
-----आपका मानो तो दोस्त/भाई/मामा/चाचा आदि नहीं तो मैं रमेश कुमार जैन तो हूँ ही.
दोस्तों, मेरा फेसबुक का एक
अनुभव देख लो. जब मैंने कुछ अपने रिश्तेदारों फेसबुक पर ढूंढा और उनको
दोस्ती का निमंत्रण भेजा. तब उन्होंने ठुकरा दिया. कुछ चाहते थें कि मैं
नियमों की अनदेखी करके अपनी प्रेस कार्ड दे दूँ. मगर मैंने उनको जारी नहीं
किए. जिन्हें "पत्रकारिता" शब्द का सही
अर्थ नहीं मालूम उनको कैसे "प्रेस कार्ड" जारी कर देता. आज भी मेरी
प्रोफाइल में एक-आध अपवाद छोड़ दें तो कोई मेरा रिश्तेदार नहीं है. अगर
एक-आध है भी तो उसकी कभी प्रतिक्रिया नहीं मिली. एक गाना भी है कि "अपने
गिरते है नशे दिल पर बिजलियाँ और गैरों ने आकर फिर भी थाम लिया" आज मेरे
अनेकों दोस्त बने हुए. जिनसे मेरा कोई रिश्ता नहीं है. मगर एक "इंसानियत"
का रिश्ता है. जो सब से बड़ा रिश्ता है
दोस्तों, आप विश्वास करना हम
ने किसी दोस्त से दगा नहीं की. मगर हमारे दोस्तों ने अनेकों बार दगा दी.
हमारे तो दोस्त और अपने ही दुश्मन बन खड़े है. हमें गैरों ने आकर फिर भी थाम
लिया है. वरना अपनों ने तो हमें कागज काले करने वाला एक निकम्मा और चोर
व्यक्ति कहकर सरे-बाजार में बदनाम तक कर दिया है. फेसबुक पर आई टिप्पणी और गीतों से सजे इस नोट को पढ़ने के लिए यहाँ पर क्लिक करें.
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