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शुक्रवार, मार्च 15, 2013

दिल्ली पुलिस ने थूककर चाटा, अपने बयान से पलटी

सुभाष तोमर की मौत में गिरफ्तार 8 लोग बेकसूर: पुलिस

नई दिल्ली:दिल्ली गैंगरेप कांड के बाद विरोध-प्रदर्शन के दौरान कांस्टेबल सुभाष तोमर की मौत पर पुलिस ने अदालत में यू-टर्न ले लिया है। दिल्ली पुलिस का कहना है कि इस मामले में उसने जिन आठ लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया वो बेगुनाह थे। हाईकोर्ट में इस मामले की विस्तृत सुनवाई अब 20 मार्च को होनी है। 
गौरतलब है कि वसंत विहार गैंगरेप के खिलाफ इंडिया गेट पर विरोध प्रदर्शन के दौरान कांस्टेबल सुभाष तोमर अचेत हो गए। अस्पताल में इलाज के दौरान दो दिन बाद उनकी मौत हो गई थी। पुलिस ने इस मामले में इलाके में मौजूद आठ लोगों को आरोपी बनाया था, लेकिन मंगलवार को हाईकोर्ट में पुलिस का रुख बदल गया। पुलिस ने कांस्टेबल की मौत के मामले में इनमें से किसी शख्स की भूमिका होने से इनकार कर दिया।
 दरअसल दिल्ली पुलिस की इस कार्रवाई के खिलाफ आरोपियों ने दिल्ली हाईकोर्ट में अपील की थी। अपील में मांग की गई थी कि उनके खिलाफ दर्ज की गई एफआईआर को रद्द किया जाए। इस बाबत दिल्ली हाईकोर्ट ने दिल्ली पुलिस से जवाब मांगा था। मंगलवार को दिल्ली पुलिस ने हाईकोर्ट को बताया कि कांस्टेबल सुभाष तोमर की मौत के मामले में एफआईआर में दर्ज 8 लोगों की कोई भूमिका नहीं है। इनके खिलाफ कोई सबूत नहीं मिला है जिससे ये साबित हो सके कि कांस्टेबल सुभाष तोमर की मौत इनकी वजह से हुई। जहां तक प्रदर्शन के दौरान सार्वजनिक चीजों को नुकसान पहुंचाने का आरोप है तो उसमें इनकी भूमिका है।
इंडिया गेट पर हुए प्रदर्शन के दौरान पुलिस ने जिन 8 लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की थी। उनमें कैलाश जोशी, अमित जोशी, शांतनु कुमार, नफीस, शंकर बिष्ट, नन्द कुमार, अभिषेक और चमन कुमार का नाम शामिल था। इनमें से चमन कुमार आम आदमी पार्टी का कार्यकर्ता है। इन सभी को अगले ही दिन जमानत मिल गई थी। हाईकोर्ट ने अब इस मामले की अगली सुनवाई 20 मार्च को मुकर्रर की है। इस दिन अदालत विस्तृत तरीके से पूरे मामले की सुनवाई करेगी।
क्या हमारे देश का अंधा कानून कोई मुआवजा देगा ?
अब जबकि दिल्ली पुलिस ने हाईकोर्ट में यह मान लिया कि कांस्टेबल सुभाष तोमर की हत्या उन आठ प्रदर्शनकारियों ने नहीं की है जिन्हें उसने हत्या का आरोपी बता गिरफ्तार किया था तो ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर अब उन पुलिसवालों की जवाबदेही कौन तय करेगा जिन्होंने कहा था कि इन्हीं लोगों ने कांस्टेबल की पिटाई की थी, जिससे उनकी मौत हुई। हालांकि इस मामले में दो प्रत्यक्षदर्शियों के सामने आने और उनके द्वारा कांस्टेबल तोमर की मौत भागते हुए गिरने के कारण होने की बात कहने के बावजूद दिल्ली पुलिस के आला अधिकारी यही कहते रहे थे कि कांस्टेबल तोमर की हत्या हुई है और हत्या के दोषी वे प्रदर्शनकारी ही हैं जिन्हें गिरफ्तार किया गया है। इतना ही नहीं, जब पोस्टमार्टम रिपोर्ट में यह साबित हो गया कि सुभाष तोमर की मौत दिल का दौरा पड़ने से हुई है, तब भी पुलिस यह कहने से नहीं चूकी कि प्रदर्शनकारियों की पिटाई के कारण ही उन्हें दिल का दौरा पड़ा, जिससे उनकी मौत हो गई। शुरू से ही पुलिस इस मामले में कमजोर पड़ती नजर आ रही थी। जिन आठ लोगों को उसने हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया था और कहा था कि ये लोग इंडिया गेट पर ही मौजूद थे, उनमें से दो लोगों के राजीव चौक मेट्रो स्टेशन में होने की पुष्टि सीसीटीवी कैमरे मे माध्यम से जनवरी में ही हो गई थी। इतना ही नहीं, क्राइम ब्रांच द्वारा कई सीसीटीवी फुटेज को खंगालने और अनेकों गवाहों से पूछताछ करने के बावजूद उसके हाथ ऐसा कोई सबूत नहीं लगा जिससे दिल्ली पुलिस का दावा सच साबित हो पाता कि प्रदर्शनकारियों की पिटाई से कांस्टेबल तोमर की मौत हुई। अब घटना के लगभग ढाई महीने बाद दिल्ली पुलिस को मानना पड़ा कि उसने बेगुनाहों को हत्या के आरोप में पकड़ लिया और उसके पास उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं है। निश्चित ही हमें इस पूरे प्रकरण में उन दो बहादुर प्रत्यक्षदर्शियों योगेंद्र और पाउलिन को याद करना होगा सच लाने और कहने की हिम्मत जुटाई कि कांस्टेबल तोमर को किसी ने नहीं मारा, बल्कि प्रदर्शनकारियों के पीछे भागते हुए वे स्वयं गिर पड़े थे। 
जिस समय हत्या के आरोप में पुलिस ने आठ लोगों को गिरफ्तार किया, तब शायद पुलिस के आला अधिकारियों ने सोचा भी नहीं होगा कि उन्हें इस मामले में यूं किरकिरी झेलनी पड़ेगी। लेकिन एक सवाल जो उठता है वह यह कि यदि यह मामला इतने जोर-शोर से मीडिया में नहीं आता और बहादुरी के साथ प्रत्यक्षदर्शी अपनी बात नहीं रखते तो उन आठ बेगुनाहों का क्या होता जिन्हें पुलिस हत्या के आरोप में गिरफ्तार कर चुकी थी? अब इसे पुलिस की एक और नाकामी कहें या सचाई की जीत, लेकिन इतना तय है कि इस घटना ने एक बार फिर पुलिस को न केवल बैकफुट पर ला दिया है बल्कि उस विश्वास को भी ठेस पहुंची है जो बमुश्किल पुलिस पर जनता कायम कर पाती है। जब बात पुलिस और जनता के बीच आपसी रिश्ते और तालमेल की होती है तो यही दोहराया जाता है कि पुलिस को ऐसे तरीके अपनाने होंगे जो उनके प्रति जनता में विश्वास पैदा कर सकें। लेकिन इस तरह की घटनाएं उस विश्वास को पनपने से पहले ही खत्म कर देती हैं। हत्या का आरोप झेल रहे वे आठ बेकसूर नौजवान आज भले ही बरी कर दिए गए हों, लेकिन ढाई पुलिस प्रशासन कर पाएगा? दिल्ली महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित शहर बनता जा रहा है। ऐसे में यहां की पुलिस फोर्स ही जब अपने कामों की वजह से सवालों के घेरे में घिरती रहे तो राजधानी के नागरिकों की सुरक्षा का प्रश्न जटिल होना स्वाभाविक है। चूंकि दिल्ली देश की राजधानी है, इसलिए यहां पुलिस की प्रत्येक कार्यपण्राली और सिस्टम अन्य राज्यों के लिए भी एक उदाहरण और आदर्श बनते हैं। ऐसे में यदि दिल्ली पुलिस का अमानवीय चरित्र सामने आता है तो निश्चित ही संपूर्ण पुलिस व्यवस्था का मनोबल गिरेगा। 16 दिसम्बर, 2012 के गैंगरेप मामले के बाद गठित उषा मेहरा आयोग ने भी दिल्ली पुलिस की लचर व्यवस्था का जिक्र अपनी रिपोर्ट में किया था। गृह मंत्रालय को सौंपी अपनी रिपोर्ट में मेहरा कमीशन ने साफ कहा था कि गैंगरेप की घटना के लिए दिल्ली पुलिस का लचर रवैया ही जिम्मेवार है। जिस बस में गैंगरेप की घटना हुई, उसका कई बार चालान कट चुका था, बावजूद इसके वह राजधानी की सड़कों पर दौड़ती रही जो पुलिस सिस्टम की नाकामी का द्योतक है। साथ ही कमीशन ने दिल्ली पुलिस को संवेदनशील बनाने की भी बात कही थी। लेकिन कांस्टेबल सुभाष तोमर की मौत के बाद जिस तरह से दिल्ली पुलिस ने अपनी भड़ास निकालने के लिए बिना किसी सबूत के आठ लोगों को गिरफ्तार करने में तत्परता दिखाई, यदि इतनी तत्परता वह अपराध पर लगाम लगाने में दिखाए तो पुलिस निश्चित ही अपनी गिरती साख को बचा सकती है। भले ही दिल्ली पुलिस ने कबूलनामे में अपनी भूल स्वीकार कर ली हो, पर क्या इस मामले में किसी की भी जवाबदेही तय नहीं होनी चाहिए? 
इस मामले में जो सबसे चौंकाने वाली बात रही, वह यह कि खुद दिल्ली पुलिस कमिश्नर तक ने बिना किसी जांच-पड़ताल और गवाहों के मान लिया कि कांस्टेबल तोमर की हत्या ही हुई है। एक सवाल जो बार-बार उठना स्वभाविक है कि आखिरकार पुलिस को क्यों अपने ही एक जाबांज कांस्टेबल की मौत पर यूं गलतबयानी करनी पड़ी। अब तो यही लगता है कि कांस्टेबल तोमर को शहीद का दर्जा देने की बजाए दिल्ली पुलिस उनकी मौत को ढाल बना आखिर तक अपना ही खेल खेलती रही।
सुभाष तोमर की मौत में गिरफ्तार 8 लोग बेकसूर: पुलिस
यदि दोनों बहादुर प्रत्यक्षदर्शियों योगेंद्र और पाउलिन आगे नहीं आते तब क्या होता और यदि बेचारे गरीब होते एवं उनके पास वकील करने के लिए धन नहीं होता. तब बेकसूर होते हुए भी जेल सड़ जाते या किसी दिन तनाव में आकर "आत्महत्या" करने जैसा कदम उठा सकते थें. आज के समय में जेल में कितने ही गरीब और बेकसूर लोग दिल्ली पुलिस द्वारा फंसाए केसों में नारकीय जीवन जी रहे है. आज के समय में सरकार की नीतियां "आम आदमी" को अपराधी बनने के लिए मजबूर कर रही है.  
अब यह सवाल उठता है कि क्या सुभाष तोमर की मौत में गिरफ्तार 8 बेकसूर लोगों को दिल्ली पुलिस या हमारे देश का अंधा कानून कोई मुआवजा देगा. यदि नहीं तो क्यों नहीं ? क्या हमारे देश का अंधा कानून दिल्ली पुलिस के उन अधिकारियों को कोई सजा देगा ? यदि नहीं तो क्यों नहीं? इस मामले में हाईकोर्ट को चाहिए कि दिल्ली पुलिस के उन जिम्मेदार अधिकारीयों को जिन्होंने उन आठ बेकसूर लोगों को गिरफ्तार किया था उनको सख्त से सख्त सजा देकर एक मिसाल कायम करनी चाहिए. यदि हमारे देश का अंधा कानून कोई सजा नहीं देता है तो लोगों का न्याय से विश्वास उठ जायेगा और न्यायधीशों की देश के संविधान के प्रति ईमानदारी पर भी एक प्रश्नचिन्ह लग जायेगा. फिर कोई भी पुलिस का अधिकारी किसी भी "आम आदमी" फर्जी केसों में फंसा दिया करेगा. 
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यह है मेरे सच्चे हितेषी (इनको मेरी आलोचना करने के लिए धन्यवाद देता हूँ और लगातार आलोचना करते रहेंगे, ऐसी उम्मीद करता हूँ)
पाठकों और दोस्तों मुझसे एक छोटी-सी गलती हुई है.जिसकी सार्वजनिक रूप से माफ़ी माँगता हूँ. अधिक जानकारी के लिए "भारतीय ब्लॉग समाचार" पर जाएँ और थोड़ा-सा ध्यान इसी गलती को लेकर मेरा नजरिया दो दिन तक "सिरफिरा-आजाद पंछी" पर देखें.

आदरणीय शिखा कौशिक जी, मुझे जानकारी नहीं थीं कि सुश्री शालिनी कौशिक जी, अविवाहित है. यह सब जानकारी के अभाव में और भूलवश ही हुआ.क्योकि लगभग सभी ने आधी-अधूरी जानकारी अपने ब्लोगों पर डाल रखी है. फिर गलती तो गलती होती है.भूलवश "श्रीमती" के लिखने किसी प्रकार से उनके दिल को कोई ठेस लगी हो और किसी भी प्रकार से आहत हुई हो. इसके लिए मुझे खेद है.मुआवजा नहीं देने के लिए है.अगर कहो तो एक जैन धर्म का व्रत 3 अगस्त का उनके नाम से कर दूँ. इस अनजाने में हुई गलती के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ.

मेरे बड़े भाई श्री हरीश सिंह जी, आप अगर चाहते थें कि-मैं प्रचारक पद के लिए उपयुक्त हूँ और मैं यह दायित्व आप ग्रहण कर लूँ तब आपको मेरी पोस्ट नहीं निकालनी चाहिए थी और उसके नीचे ही टिप्पणी के रूप में या ईमेल और फोन करके बताते.यह व्यक्तिगत रूप से का क्या चक्कर है. आपको मेरा दायित्व सार्वजनिक रूप से बताना चाहिए था.जो कहा था उस पर आज भी कायम और अटल हूँ.मैंने "थूककर चाटना नहीं सीखा है.मेरा नाम जल्दी से जल्दी "सहयोगी" की सूची में से हटा दिया जाए.जो कह दिया उसको पत्थर की लकीर बना दिया.अगर आप चाहे तो मेरी यह टिप्पणी क्या सारी हटा सकते है.ब्लॉग या अखबार के मलिक के उपर होता है.वो न्याय की बात प्रिंट करता है या अन्याय की. एक बार फिर भूलवश "श्रीमती" लिखने के लिए क्षमा चाहता हूँ.सिर्फ इसका उद्देश्य उनको सम्मान देना था.
कृपया ज्यादा जानकारी के लिए निम्न लिंक देखे. पूरी बात को समझने के लिए http://blogkikhabren.blogspot.com/2011/07/blog-post_17.html,
गलती की सूचना मिलने पर हमारी प्रतिक्रिया: http://blogkeshari.blogspot.com/2011/07/blog-post_4919.html

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